शाम
पहले,
जब शाम आती थी,
तो सूरज ऊंघता था,
अपने नीले बिछौने में.
और ढक लेता था,
अपना चेहरा
उस लाल चादर में.
और दूसरे छोर पे
चांद मुस्कुराया करता था,
उसकी बेचारगी पे.
बैठती थी शाम,
मेरे बगल कि,
उस खाली कुर्सी पे
मुस्कुराता हुआ
चेहरा,
शाम का,
रोकता था हर पल को,
कि हो ना जाये
रात,
देखते ही देखते
गुज़र जाया करता था,
जाने कितना ही वक्त,
शाम के साथ.
इक उम्र गुज़र गई,
और कुछ भी तो नहीं बदला.
अब भी
सूरज वही लाल चादर ओढे,
चेहरा ढक लेता है
और चांद,
अब भी,
वैसे ही मुस्कुराता है,
अगर कुछ बदल गया है,
तो सिर्फ़ इतना
कि
अब शाम नहीं आती
हां ................
वो शाम.......................
वो शाम याद बहुत आती है
Friday, November 25, 2005
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1 comment:
विपुल जी, आपकी यह कविता बहुत अच्छी लगी। मेरा सुझाव है कि आप हिन्दी में भी अपना एक ब्लॉग ज़रूर बनाएँ।
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