Friday, November 18, 2005

तुम

भूल तो सकते हो मेरे दोस्त
कुछ समय के लिए
उन शाश्वत सत्यों को
और रख सकते हो
छलावे में अपने आप को
उन, मिथ्या और
क्षणिक सुखों की
चासनी में डुबोकर
जिनके सामने,
आगे-पीछे
या फिर
ऊपर और नीचे
तुम्हें कुछ दिखाई नहीं देता।
कोई दर्पण
जो तुम्हें
तुम्हारा
असली चेहरा
दिखाने की कोशिश करता है,
तुम्हारा अहं,
उसे चकनाचूर कर देता है।
तुम्हें याद भी न होगा
या कहूं कि
तुम्हें फुर्सत ही कहाँ है
जो ये जानो कि
अब तक कितने दर्पण,
तुम्हारी,
बेरहमी का शिकार हुए हैं।

ऐसा न हो कि
एक दिन
उनके टुकडे
बिखरते-बिखरते
इतने हो जायें कि
घर से बाहर निकले, तुम्हारे हर कदम को
लहू-लुहान कर दें।
तब,
और तब,
क्या होगा मेरे दोस्त,

जब गुजर जाएगा वह, जिसे,
आज तक,
न तुम रोक पाए हो
न मैं
और न कोई अन्य ही।
सच तो ये है कि
वह अकेला ही नहीं गुजरता
बल्कि अपने साथ
सब कुछ,
हाँ-हाँ ... स.....ब कुछ
बदलते हुए गुजरता है।
और तब,
बियावान जंगल में
भटक गए प्राणी-सा
एकाकी मन,
चीत्कार करता है,
छटपटाता है
हा-हाकार करता है।
पर,
इससे आगे,
कर कुछ नहीं सकता,
क्योंकि,
यही प्रकृति का नियम है।
इसलिए पुन: कहता हूँ कि
तुम,
भूल तो सकते हो मेरे दोस्त
कुछ समय के लिए,
उन शाश्वत सत्यों को
पर,
नकार नहीं सकते!
नकार नहीं सकते मेरे दोस्त,!!
नकार नहीं सकते!!!

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